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महानगर...

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सरपट भागती , न जाने क्या तलाशती , एक दुसरे को धकियाती , नोचती , खसोटती, लुटती,पिटती, शोर मचाती  पान चबाती, खांसती, खंखारती, इधर उधर थूकती, दीवारों को गन्दा करती, धुंआ उड़ाती , गंद फैलाती, कभी धर्म के नाम पर , कभी पाखंडों को थाम कर, मरती मारती, सिर्फ खुद के लिए सोचती, चौतरफा है एक भीड़, कौन हैं ये लोग ? कहाँ से आ रहे हैं ? कहाँ को जायेंगे ? कब तक दौड़ते रहेंगे ? क्या ऐसे बचेगा हमारा अस्तित्व..? बहुत सारे  सवाल मेरे, जहन को झिंझोड़ने लगते हैं , घबरा कर मैं आँखे बंद कर लेती हूँ, फिर ख्याल झटक देती हूँ, और चल पड़ती हूँ , आगे  निकलने की होड़ में उसी भीड़ का एक हिस्सा बनने ..... ................................................ममता

मन की उड़ान......

सोचती हूँ पर्वत बन जाऊं , अविचलित,अखंड , आकर्षक , धवल सफेद,  आसमान को छूते पर्वत , तूफानों का  रुख मोड़ दूं , और आसमान से सितारे  चुराकर, प्यासी धरती में, धीरे धीरे प्यार से बिखरा दूं .....                                      सोचती हूँ, पंछी बन जाऊं   , अनासक्त, तटस्थ, बंधन से मुक्त , उम्मीदों से दूर, कोई पहचान नहीं, किसी की यादों में भी नहीं,  पेड़ों की डालियों में झूलती, खुले आसमान के नीचे,  सितारों से बातें करती, शाम की गुनगुनी हवाओं में गोते लगाऊं, इधर से उधर, बस उन्मुक्त उड़ती रहूँ ....   सोचती हूँ नदी बन जाऊं...   अपने विस्तार को पाने के लिए, पत्थरों चट्टानों से टकराती , खुद अपनी राह बनाती , कभी शांत कभी तेज़ , इठलाती इतराती ,   संगीतमयी कलकल करती, अनवरत बहती जाऊं,   सुनहरी घाटियों में दौड़ लगाऊँ ,    और अनंत सागर में एकाकार हो जाऊं ....   ...........................................................mamta

कौन अपना ~~~~कौन पराया~~~~

मापदंड क्या है ? कि  कौन अपने कौन पराये  होते  हैं , आँखों से जो  दिखते हैं ,क्या  बस वही रिश्ते सच्चे होते हैं .. कुछ अपने होकर एहसासहीन, अपनों के  दर्द से आँख मूँद लेते हैं , कहीं  कुछ  बेगाने भी  अपना बन हाथ  थाम  लेते है .. कुछ लोग खून के रिश्ते भी भुला देते हैं, कुछ लोग बिन रिश्ते भी रिश्ता निभा लेते  हैं .. कहीं कुछ अपने बेरहमी से दिल तोड़ देते हैं , कहीं कुछ अनजाने लोग अनूठा बंधन जोड़ लेते  हैं .. कभी अपनों की भीड़ में भी सब बेगाना सा लगता है , कभी अंजानो के बीच  में कोई अपना सा लगता  है .. कहीं खून के रिश्तों में भी , जज्बात नहीं होते , कहीं अनजान के जज्बों में भी लगता है ,खून दौड रहा है ..                                                                                   .................................................................................. mamta

फ़लसफ़ा -ए-ज़िन्दगी.....

आज यूं ही  मैंने,जिंदगी का हिसाब लगाया, क्या खोया क्या पाया ,एक समीकरण बनाया, यादों की गलियों में एक चक्कर लगाया , झाड़ पोछ अतीत के पन्नो को पलटाया, बिखरी मिली कुछ ख्वायिशें ,जो रही गयी अधूरी थी , ख्वाबों की एक बड़ी लिस्ट ,जो हुयी नहीं पूरी थी , कुछ टूटे हुए सपने थे ,कहीं रूठे हुए अपने थे, नन्ही नन्ही खुशिया थी ,कुछ प्यारे प्यारे रिश्ते थे , कहीं आँखे नम थी ,कहीं थोड़े गम थे,  हँसते मुस्कुराते पल,वो भी कहाँ  कम थे , जिंदगी के हर मोड़ में यादें सुहानी थी,  सुख और दुःख की मिलीजुली कहानी थी , वक़्त ने सिखा दिया मुझे , फल्सफा- ए - जिंदगी  बहुत  अजीब है , कहीं कुछ जुड जाता है ,कहीं कुछ घट जाता है  और ये समीकरण संतुलित हो जाता है ... .............................. ..................... mamta

आखिर कब होगी सुबह...

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भेदभाव सदियों से रहा है ,समाज के मन में जब बात आती है  औरत की , वेद हो या पुराण, रामायण या महाभारत, बताती हैं हमारे ग्रंथो की  पौराणिक   कहानियां , कौन नहीं जानता अहिल्या की कहानी , बलि चढ़ गयी थी इसी क्रूरता की, एक तथाकथित महान संत की , शालीन , खूबसूरत  पत्नी , हुयी थी शापित ऐसे कृत्य के लिए , जो उसने किया ही नहीं ..... इन्द्र हमारे यश्स्वी देवताओं का राजा , वेश बदल कर अहिल्या के पति का  , एक दिन करता है पोषित अपनी वासना... और वो क्रोधित महान संत  , नहीं समझते अहिल्या की मनोदशा, और श्राप देते हैं उसे पत्थर बन जाने का , ये कह कर की वो तभी पवित्र होगी , जब श्री राम के चरण करेंगे उसका उद्धार , और अहिल्या अपने पति की आज्ञा स्वीकार कर , इंतज़ार करती  रही वर्षों तक मुक्ति का , अपनी आत्मा को पत्थर में कैद कर ... , ये है हमारा समाज और इस समाज के पुरुष, जो आदमी के कुकर्मों की सजा भी देते है स्त्री को , अहिल्या का अस्तित्त्व आज भी नहीं बदला , और न ही बदले आधुनिक समाज के तथाकथित संत , जो आज भी बलात्कार के बाद स्त्री से करते हैं प्रश्न , तुमने छोटे कपडे क्यों पहने थे